
बीकानेर-आखातीज : कूट, फटक, छाण, खदबद खीचड़ौ सिजायो, एकै थाळी जीम बीकाणै रो बर्थ-डे मनायो
RNE, BIKANER .
हालांकि बीकानेर का स्थापना दिवस एक दिन पूर्व अक्षय द्वितीया यानी आखाबीज को था लेकिन परंपरागत तरीके से स्थापना दिवस का सेलिब्रेशन यहां अगले दिन यानी आखातीज को सबसे ज्यादा होता है। इस बार भी ऐसा ही हुआ। पौ फटते ही हर घर की छत पर किन्ना, लटाई लेकर बच्चे पहुंच गये।
छुट्टी लिये पापा, काका ने अपने अनुभव के साथ किन्नै उड़ाने कम सिखायै खुद ही पेंच लड़ाने का लोभ संवरण नहीं कर पाए। बस, हर घर की छत से पतंगों की सरसराहट निकली तो पूरे शहर के आकाश को ढंक दिया।
लगने लगा उद्घोष ‘बोई काट्या है…।’ चुनौती दी जाने लगी ‘थारै नाकड़ ऊपर घूम रैयो घुमाड़ करै’ उकसाया गया ‘फेर उड़ा’। ये उकसाने और चेतावनी के सुरों ने ऐसा असर दिखाया कि कई छतों के पतंगबाजों के बीच मानों ‘लडत’ मंड गई। धूप तेज होने लगी तो पतंगबाज भी कम होने लगे और छतों पर भीड़ के साथ आकांश में पतंगों की तादाद कम हुई।
ऐसे में ‘लड़ाकों’ को मौका मिल गया। अब पेच लंबे ‘बधरने’ लगे। ऊपर, नीचे, आगे, पीछे, कोणिया माथै, ढील-हिचका तकनीक, ऊपर सूं गुड़का, नीचे सूं फ्री-स्टाइल आदि पैंतरे आकाश में नजर आने लगे। इस बीच कोई आवारा किन्नी आकर लंबे पेंचों के बीच दो हाथ जोर से खींच फैसला कर जाती। एक बार मायूसी होती है लेकिन अगले ही क्षण होठों पर हंसी और जोरदार उद्घोष गूंजता ‘बोई काट्या है’।
हालांकि धूप के तीखे तेवर देख छतों पर टैंट तन गये। आंखों पर सनग्लास, माथै पर हैड-कैप और मुंह पर स्कार्फ बंध गये लेकिन दोपहर लगभग 12 बजते गर्मी असहनीय होने लगी। इसके साथ ही छत पर चढ़े लोगों के लिए आंगन से बुलावा आने लगा। धूप इतनी तल्ख हो गई अब छत पर टिके रहना भी मुश्किल था।
..और रसाई में खीचड़ा तैयार !
एक ओर जहां छतों पर बोई काट्या का शोर चल रहा था वहीं घर के किचन से लेकर आंगन तक चल रही थी खास तैयारी। कूट, फटक, छाणकर रखे गये खीचड़े को कूकर या भरथियै में ‘सीजने’ को चढ़ा दिया था। कुकर में तो कुछ ही मिनिटों में सीटी बोल गई लेकिन भरथिये के मुंह पर रखी कटोरी जब खदबद से उछलने लगी तो दाना निकाल देखा गया।
‘सीजने’ की संतुष्टि होने पर भी ढंक कर रख दिया गया ताकि ‘परसीजे’ और ‘मैणामैण’ सीजे। इसका असर भी हुआ। घी-मिश्रित खुशबू पूरे घर में तैर गई और जो आवाजें देने पर भी छतों से नहीं आ रहे थे उन्हें यह खुशबू खींच लाई।
इसकी संगत के लिये आखी बड़ी और चंदळिये का साग तो तैयार था ही बड़े जतन से इमलाणी भी छाणी गई। इसमें एक लोटा पानी उस मटकी का डाला जो एक दिन पहले घर की बहू ने नई साड़ी पहनकर पूरे मंगलाचार के साथ छाणी थी।
पीढ़ियों ने एक थाली में लिया सबड़के का स्वाद !
बस, आंगन में थाल लग गया। पीढ़ियां एक ही थाल के इर्द-गिर्द आ जमी। थाल भरकर परोसे गये खीचड़े में घी उंडेला गया तो ‘घिलौड़ी’ छोटी लगी। लोटे या बरनी से घी उंडेलकर खीचड़ा चिकना किया। दुपड़े फलके से घी को लपेट। हाथों से मथकर खीचड़ै का पहला सबड़का लिया तो अनायास मुंह से निकल गया ‘वाह’। खीचड़े के सबड़के के साथ इमलाणी के गुटके का असर रहा या 45 डिग्री पर पहुंच चुके तापमान से उपजी थकन, दोपहर को लगभग समूचा शहर उंघता लगा।
सड़कों पर सन्नाटा पसर गया। बाजार लगभग बंद हो गये। दुकानदार आधे दिन बाद ही घर चले गये। अब जो दुकानें खुली थी उनमे ज्यादातर पतंगों, पान, कोल्ड-ड्रिंक, सब्जी आदि की रही। अलबत्ता सावे का दिन होने के मिठाई और परचून की दुकानें जरूर खुली दिखी।
शाम होते-होते शहर छतों पर जा चढ़ा :
एक विराम के बाद मानों शहर फिर जाग गया। शाम होने से पहले ही छतों पर रौनक बढ़ गई। पहले बच्चे पहुंचे। फिर घर के बड़ों ने छत पर पहुंचकर नजारा किया और आखिरकर महिलाएं भी आ धमक। एक-एक छत से चार-चार लटाइयों पर बंधे किन्नै उड़ने लगे। कौन, किससे, कब भिड़ गया, किसने, किसका किन्ना काट दिया पता ही नहीं चला।
बस, उड़ते रहे, कटते रहे, काटते रहे। इसके साथ गूंजते रहे बोई काट्या। शाम गहराते तक यह मारकाट मची रही और आखिरकार जब सूरज डूबने लगा तो एक साथ बीसियों छतों से चले पटाखे। आकाश दीप उड़ै। आखातीज के मौके पर दीपावली का अहसास करवाते लोगों ने थालियां भी बताई। बुजुर्गों ने प्रार्थना की ‘नगर सेठ लिखमीनाथजी म्हारे सेर माथै इयां ही सहाय बणायोड़ी राखै। टाबर आखातीज खेलता रैवा।’